भूखा I.P.S



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 भूखा I.P.S 

वो गया देहरादून
बो कर माँ पापा के सीने में 
उम्मीदों के बीज,
की वो बनेगा एक दिन 
I.P.S ऑफिसर।
करनपुर की गलियों में तलाशने लगा 
एक अच्छा सा इंस्टिट्यूट,
फीस पूछी 
तो कहीं बीस हज़ार 
तो कहीं पचास।
और उसकी जेब में 
बस दो हज़ार रूपए। 
तो उसे लगा 
उसकी औकात नहीं 
I.P.S  बनने की। 
माँ पापा गरीब थे 
उन्हें क्या दोष देता। 
बस पूछता भगवान से 
की कोई पैदा होते ही बन जाता है 
करोड़ों की जायदाद का वारिस,
तो कोई तरसता है 
दो वक़्त की रोटी के लिए.
महीना गुज़रा एक कमरे की 
चारदीवारी  में। 
लगता I.P.S  को डाला गया हो 
जेल के अंदर।
हो चुके थे 
जेब,किस्मत और पेट 
तीनो  खाली।
बज़ार में जाकर ताकता रहता 
ठेलियों को.
अपनी और  खींचा  करते वो छोले कुलचे 
जिन्हे वो कभी खाना पसंद नहीं करता था.
फिर थक हार कर वो I.P.S 
करने लगा एक ढाबे में काम.
अब वो भूखा नहीं रहता 
और महीने में उसे मिल जाती है पगार। 








वो स्कूल वाली लड़की

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वो स्कूल वाली लड़की,
जिसे देखने के लिए 
मैं जाया करता था स्कूल,
क्यूंकि न वो गणित के सवाल अच्छे लगते 
और ना ही वो मोटी तोंद वाले मास्टर जी.
तो प्यार करने को बस एक ही चीज़ थी 
वो घुंगराले बालों वाली 
पहाड़ी लड़की।
वो मुझसे बात नहीं करती थी,
क्यूंकि उसकी माँ ने बताया था 
की  ऐरे गैरे से बात मत करना,
और उसके लिए मैं 
ऐरा गैरा ही था.
उससे बात करने की हिम्मत तो करता 
लेकिन पास जाकर ही 
सारी हिम्मत गुब्बारे में भरी हवा की तरह 
फुस्स्स हो जाती।
अब उसे बताने का एक ही तरीका समझ आता 
की उसकी टेढ़े नाक वाली 
सहेली को चढ़ाया जाए 
झाड़ के पेड़ पर.
और उसे झूट झुट बोला जाए 
की उससे खूबसूरत कोई भी नहीं। 
फिर उसे दे देता एक खत 
जो शुरू होता था 
प्रिय से। 
और कहता दे देना अपनी सहेली को। 
मेरा पूरा दिन जाता 
इस इंतज़ार में की 
कल वो क्या जवाब देगी। 
और वो तो लड़की थी 
भाव खाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार था 
अगले दिन जवाब आता 
की यही रह गया है प्यार करने को 
बहुत से मिलेंगे इसके जैंसे।
फिर उसे न मैं मिला 
न कोई मेरे जैंसा।
पिछली बार जब गाँव गया था
वो मिली रास्ते में
अपने बच्चे को ले जा रही थी
पोलियो पिलाने।  
चेहरे पर मुस्कुराहट आयी
और सोचने लगा
यार ये बचपन भी क्या चीज़ होती है।




कन्यादान


कन्यादान
रो नहीं पाया मगर,
कुछ अंदर ही अंदर टूटा,
जब तेरा नन्हा हाथ 
मेरे हाथों से छूटा।
वो तेरी किलकारियाँ 
वो शैतानियां,
वो मासूमियत तेरी 
वो बचपन की नादानियाँ। 
कहीं ख़ुशी थी 
था कहीं रूठा रूठा ,
जब तेरा हाथ 
 मेरे हाथों से छूटा,
मेरे स्कूटर में बैठ कर 
मुस्कुराया करती थी ,
हाथों को पकड़ कर 
दूकान ले जाया करती थी,
वो तेरा स्कूल का पहला दिन,
जब बहुत रोई थी,
वो राते जब मेरी गोद में 
सर रख के सोई थी। 
कहती थी बाबा आप साथ हो गर 
तो कहाँ किसी से डरी हूँ मैं,
आपकी जान हूँ 
आपकी परी  हूँ मैं.
अपने घुंगराले बालों को 
जब खुजलाया करती थी,
हमे भी हंसाती 
खुद भी मुस्कुराया करती है ,
मायूस थी ना जाने क्यों 
ये चेहरे की मुस्कान,
जब किया 
अपनी नन्ही परी  का कन्यादान। 








मुझे गर्व है की पहाड़ी हूँ,


मुझे गर्व है की पहाड़ी हूँ,
पेड़ों की ठंडी छाँव में रहता हूँ,
तेरे शहरों के कीचड़ से तो अच्छा है 
मैं अपने गाँव में रहता हूँ। 
तुम रहते हो  फरेबों के समंदर में 
मैं खुशियों की नाव में रहता हूँ.
मुझे नहीं आता किसी बाबा के पैरों में गिरना 
मैं बस माँ के पाँव में रहता हूँ। 
मुझे गर्व है की पहाड़ी हूँ। 






ब्यो(शादी )

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ब्यो(शादी )

मुस्कुरा उठा चेहरा,
मिट गया हर दर्द गहरा।
लगा कुछ यूँ 
कारवां तकलीफों का ठहरा 
बॉस से छुट्टी मांगने का बहाना मिल गया,
अपनी मिट्टी के पास जाना मिल गया.
याद आये वो ढोल दमों।
वो अपना बचपन वो जमाना मिल गया.
मौयार सा आ गया मन में 
सूखा सा पड़ा था जो,
जब माँ ने बताया 
की कब एैली  घर  फलाणा  का नोनो कु  छ  ब्यो। 
चेहरे पर आयी मुस्कुराहट,
खत्म हुए दिल के हर गम,
जब पास थी मेरे 
उत्तराखंड परिवहन निगम।



बरखा (बारिश )


लगी होगी बरखा,
छायी होगी कुयेडी,
मुस्कुरा रहे होंगे 
भीगे हुए पहाड़। 
गाँव के रास्तों में तैर रही होंगी 
कागज़ की नावें,
दादा जी बैठे होंगे 
तिबार  में ले कर हुक्का। 
और लोग बैठे होंगे 
चूल्हे के पास,
कुछ तो भूज रहे होंगे 
गर्म गर्म करारे करारे भट्ट।
किसी का बन गया होगा 
बड़ा गिलास गर्म चाय का.
तो कोई घुसा होगा।
रजाई के अंदर।
और अगर लाइट नहीं होगी 
बारिश के कारण 
जैंसा की अक्सर होता है.
तो कुछ लोग दे रहे होंगे 
गालियां 
बिजली विभाग को.
तो कुछ निकल गए होंगे घर से 
एक आधा के जुगाड़ में.





एक चाय का घूट

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रिश्ता बड़ा अटूट है,
अपनी साथी तो बस ये चाय की घूट है.
मेरा पहाड़ ही खूबसूरत है 
तेरे शहरों में तो बस लूट है.
अकेले हूँ लेकिन मुस्कुरा लेती हूँ.
दर्द तो है बस छुपा लेती हूँ.
तेरा बचपन अपने आँचल में महसूस करती हूँ।
तेरी यादों को जब मन करे पा लेती हूँ.
तू दो दिन आता है बेटा 
और फिर चला जाता है शहर ,
अब ये चाय ही है मेरी सहेली मेरी हमसफ़र। 
रिश्तों का मोह भी बड़ा अजीब है,
लगता है गया है कुछ छूट,
बना लेती हूँ फिर अपने अकलेपन  में 
एक चाय का घूट।